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09. भक्तों का ऋण

प्रभु को अपने भक्‍त बहुत प्रिय हैं । भक्तों द्वारा प्रभु के लिए किए हुए थोड़े-से कार्य को प्रभु मेरु पर्वत समान बहुत बड़ा मानते हैं । प्रभु श्री हनुमानजी द्वारा की गई सेवा को तो प्रभु श्री रामजी ने इतना बड़ा माना कि उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि कुछ भी करके वे कभी भी प्रभु श्री हनुमानजी के सेवा ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकते । यह कौन कह रहा है ? यह जगत नियंता प्रभु कह रहे हैं जिनकी भृकुटी के इशारे से ब्रह्मांडों का समूह निर्माण और लय हो जाता है और जिनके संकल्प मात्र से सभी कार्य स्वतः ही सिद्ध हो जाते हैं

श्रीराम दरबार का एक प्रसंग है । प्रभु राजसिंहासन पर भगवती सीता माता के साथ बैठे थे और हरदम की तरह प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा में प्रभु श्री हनुमानजी बैठे थे । माता ने देखा कि प्रभु को जब भी राज-काज की बातों से समय मिलता वे अपने प्रिय प्रभु श्री हनुमानजी को देखते हैं पर जब प्रभु श्री हनुमानजी अपनी नजरें उठाकर प्रभु से नजर मिलाने के लिए देखते तो प्रभु तुरंत दूसरी तरफ देखने लगते । माता ने दिन भर में ऐसा काफी बार होते देखा । रात्रि को शयनकक्ष में माता ने प्रभु से पूछा कि जब मेरा पुत्र श्रीहनुमान आपको देखता है तो आप नजर दूसरी तरफ क्यों कर लेते हैं ? तो प्रभु श्री रामजी ने बड़ा मार्मिक उत्तर दिया । प्रभु श्री रामजी ने कहा कि वे प्रभु श्री हनुमानजी के चढ़ाए सेवा ऋण से कभी भी उऋण नहीं हो सकते तो एक ऋणी जिस पर ऋण चढ़ा है वह कैसे आँखें मिला कर अपने ऋण चढ़ाने वाले व्‍यक्ति को देख सकता है । प्रभु को भक्तों का सेवा ऋण अपने ऊपर चढ़ना बहुत प्रिय लगता है । सच्ची बात तो यह है कि प्रभु कभी भी प्रभु श्री हनुमानजी जैसे भक्तों के ऋण से उऋण होना ही नहीं चाहते 

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01. प्रभु के दो बड़े प्रण

प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में अपने आश्रित का योगक्षेम वहन करने का प्रण लिया है । योगक्षेम दो शब्दों से बना है योग एवं क्षेम । योग का यहाँ अर्थ है कि प्रभु कहते हैं कि उनकी शरण ग्रहण करने वाले को जिस भी चीज की जब भी जरूरत होगी प्रभु उसे उपलब्ध करवाएंगे । क्षेम का अर्थ है कि प्रभु कहते हैं कि उसकी शरण ग्रहण करने वाले के पास जो भी है प्रभु उसकी रक्षा करेंगे । यह दोनों कितने विलक्षण प्रभु के प्रण हैं कि जब भी जिस भी चीज की उसे जरूरत होगी वह प्रभु पहुँचाएंगे और जो उसके पास है प्रभु उसकी रक्षा करेंगे । एक संत एक तीर्थ में रहने वाले पंडितजी की एक सत्य कथा सुनाते थे । एक पंडितजी नियमित रूप से मंदिर में श्रीमद् भगवद् गीताजी का पाठ करते थे और जो भी चढ़ावा आ जाता था उससे अपना घर चलाते थे । एक बार ऐसा हुआ कि तीन दिन तक कोई चढ़ावा नहीं आया और घर का चूल्हा बंद हो गया । उनकी पत्नी जो उनके जैसे श्रद्धावाली नहीं थी वह बिगड़ गई कि आपके प्रभु ऐसा योगक्षेम वहन करते हैं । पंडितजी को भी पत्नी की बात सुनकर उस समय गुस्सा आ गया और वे रात को मंदिर गए और श्रीमद् भगवद् गीताजी में लिखे योगक्षेम शब्द को ...

04. प्रभु की सेवा

हमारे घर के मंदिर में प्रभु का विग्रह होता है और हम उसकी सेवा करते हैं । सेवा करते - करते कभी हमें अपनी सेवा पर अभिमान आ जाए या लगे कि हम कितनी उत्कृष्ट सेवा कर रहे हैं तो प्रभु उस सेवा को स्वीकार नहीं करते । ऐसा नहीं हो इसलिए एक संत एक प्रसंग सुनाते थे । इस प्रसंग को बीच-बीच में पढ़ते रहना चाहिए । यह प्रसंग प्रभु श्री कृष्णजी और भगवती यशोदा माता के संदर्भ में है । श्री नंद बाबा के पास नौ लाख गौ - माताएं थी । इसमें से श्रेष्ठ नस्ल की एक लाख गौ - माताओं को उन्होंने प्रभु के लिए रखा था यानी   उनका दूध अन्य कोई काम   में नहीं लिया जाता था । एक लाख गौ - माताओं का दूध दस हजार गौ - माताओं को पिलाया जाता था । दस हजार गौ - माताओं का दूध एक हजार गौ - माताओं को पिलाया जाता था । एक हजार गौ - माताओं का दूध सौ गौ - माताओं को पिलाया जाता था । सौ गौ - माताओं का दूध दस गौ - माताओं को पिलाया जाता था । दस गौ - माताओं का दूध एक गौ - माता को पिलाया जाता था इन एक गौ - माता को पद्मगंधा गौ - माता कहा जाता था । इन पद्मगंधा गौ - माता का दूध प्रभु को पिलाने के लिए, दही, छाछ, मक्खन के लिए उपयोग में लि...

03. भक्तों का हित करने का प्रभु का प्रण

प्रभु का प्रण है कि वे अपने भक्तों का सदा हित करते हैं । जो भक्तों के हित में होता है वही प्रभु करते हैं । कभी-कभी हम कुछ और चाहते हैं पर प्रभु कुछ और करते हैं पर यह निश्चित मानिए कि प्रभु वही करते हैं जिसमें उनके प्रिय भक्तों का हित होता है । हम अपने वर्तमान को देखकर भविष्य मांगते हैं पर प्रभु हमारे भविष्य को जानते हुए हमें वर्तमान देते हैं । श्री रामचरितमानसजी में देवर्षि प्रभु श्री नारदजी का एक प्रसंग आता है । प्रभु की माया से वे एक बार मोहित हुए और प्रभु की माया ने उन्हें मायानगरी , राजा , सुंदर राजकुमारी दिखलाई । सुंदर राजकुमारी से विवाह करने का मोह उनमें जगा और वे प्रभु के पास प्रभु जैसा रूप मांगने गए जिससे राजकुमारी मोहित होकर स्वयंवर में वरमाला उनके गले में डाल दे । एक पते की बात देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने प्रभु से की कि जिसमें उनका हित हो प्रभु वैसा करें । यह बात सुनकर प्रभु अति प्रसन्न हुए क्योंकि यह प्रभु के मन की बात थी । प्रभु ने उन्हें वानर रूप दे दिया जिसका देवर्षि प्रभु श्री नारदजी को पता नहीं चला । स्वयंवर हुआ और राजकुमारी ने उनकी तरफ देखा तक नहीं और वरमाला प्रभु क...