प्रभु ही सबका पोषण करते हैं । प्रभु निमित्त किसी को भी बनाते हैं पर पीछे से करने वाले तो केवल और केवल प्रभु ही होते हैं । प्रभु थलचर, जलचर, नभचर और वनस्पति सभी का पोषण करते हैं और ऐसे अनंत कोटि ब्रह्मांड के जीवों का रोजाना पोषण करते हैं । एक बार एक राज्य में अ काल पड़ा । वहाँ का राजा ब ड़े दयालु स्वभाव का था । उसने राजकोष के द्वार खोल दिए और सभी प्रजा को अ काल की आपदा में राहत दी । उसे इसका अभिमान हो गया कि उसके कारण कितने लोगों का पोषण हुआ । उस राजा के गुरुजी ने यह भां प लिया और राजा को लेकर एक जंगल में गए जो उसके राज्य की सीमा के भीतर था । वहाँ एक बड़ी शिला को हटाया तो एक हृष्ट-पुष्ट मेंढक बैठा था । गुरुजी ने राजा से पूछा कि क्या तुमने इसका भी अपने खजाने से पोषण किया ? राजा अपने गुरुजी का इशारा तुरंत समझ गया और लज्जित हुआ । गुरुजी ने कहा कि असंख्य जीव, जंतु, कीड़े, मकोड़े से लेकर बड़े-बड़े जीव जो जंगल में रहते हैं उनका नित्य पोषण प्रभु ही करते हैं । राजा ने भी जो राजकोष खोलकर और जनता को धन सामग्री बां टी वह भी प्रभु प्रेरणा से ही संभव हो सका । राजा तो निमित्त मात्र ह...
अनीति से कमाया धन अपने साथ बहुत विकार लेकर आता है । वह पूरी तरह से अनर्थ करने में सक्षम होता है । इसलिए सात्विक धन जो धर्मयुक्त है उसे ही अर्जित करना चाहिए । पुराने समय की बात है । एक जौ हरी एक गांव से दूसरे गांव जा रहा था । रास्ते में एक वृक्ष के नीचे खाना खाने रुका और उसका थैला जिसमें बहुमूल्य रत्न, हीरे और स्वर्ण मोहरे थी वह गलती से वहीं छूट गया । एक संत अपने शिष्य के साथ उधर से निकले । शिष्य की नजर उस धन पर पड़ी । उसने कहा कि इसे ले लेते हैं और सत्कर्म जैसे साधु सेवा, भंडा रे आदि में लगाते हैं तो वर्षों तक यह धन चलेगा । संत ने कहा कि यह अनीति का धन होगा इसलिए अनर्थ ही करेगा । किसी दूसरे का कमाया धन हमारे पास चोरी के रूप में अनीति से आएगा तो वह हमारा बिगाड़ ही करेगा । संत ने शिष्य को शिक्षा देने के लिए एक युक्ति की । वे दोनों एक पेड़ के पीछे छुप गए और संत ने कहा कि देखो आगे क्या होता है । तभी राजा के चार सिपाही घोड़े पर बैठकर उधर से गुजरे । उन्होंने धन देखा तो उनकी नियत बिगड़ गई । उन्होंने आपस में बात की कि राजकोष में जमा करने के बजाए हम चारों इसे आपस में बांट लेते हैं । ...