हम जैसा चिंतन करते हैं हमारा मन भी वैसा ही बनता जाता है और हमें फल भी उसी अनुरूप मिलता है । इसलिए चिंतन सदैव भगवत् विषय का और अच्छाइयों का ही होना चाहिए तभी हमारा कल्याण और मंगल होगा । सतयुग की कथा है । एक गांव के बाहर एक साधु झोपड़ी में रहता था और एक नृत्यांगना अपने घर में रहती थी । साधु भजन और पूजन तो करता था पर नृत्यांगना के भोग-विलास, सुख-संपत्ति का चिंतन करता रहता था । साधु के मन में कई बार पछतावा होता था कि उसने विरक्ति का मार्ग लेकर गलती की और उसे भी संसार का सुख लेना चाहिए था । दूसरी तरफ नृत्यांगना रोज सोचती थी कि लोगों को रिझाने और पैसा कमाने का धंधा छोड़कर साधु की तरह अपना जीवन भजन और पूजन में लगाना चाहिए था । दोनों का जब शरीर छूटा और दोनों का हिसाब विचित्र ढंग से हुआ । क्योंकि साधु ने शरीर से भजन और पूजन किया था इसलिए गांव वालों ने उनकी समाधि बनाई । नृत्यांगना ने शरीर से बुरा कृत्य किया था तो उसका अंतिम संस्कार किसी ने नहीं किया और गिद्ध और जानवर उसके शरीर को खा गए । पर चूंकि नृत्यांगना ने मन से भजन और पूजन का संकल्प किया था उसे मानव देह में एक भजनानंदी ब्राह्मण ...
प्रभु जिसकी जैसी रुचि होती है उस अनुसार ही उसे देते हैं । किसी की संसार में रुचि होती है तो उसे संसार देते हैं पर जिसकी भक्ति में रुचि है उसकी भक्ति परिपक्व हो, ऐसा विधान रचते हैं । देवों के देव प्रभु श्री महादेवजी की एक मार्मिक कथा एक संत सु ना ते थे । एक बार भ्रमण करते हुए भगवती पार्वती माता के साथ प्रभु श्री महादेवजी पृथ्वीलोक आए । पहले एक कंजूस सेठ के घर साधु वेश बनाकर गए और सौ ग्राम दूध अभिषेक के लिए मांगा । सेठ ने मना कर दिया और बुरा भला कहा तो प्रभु श्री महादेवजी ने घर से बाहर आकर उसे आशीर्वाद दिया कि उस सेठ की संपत्ति सौ गुना बढ़ जाए । भगवती पार्वती माता ने आश्चर्य किया पर चुप रही । फिर प्रभु और माता साधु वेश में एक भजनानंदी गरीब व्यक्ति के पास गए । उसके पास एक गाय थी और उसकी माता थी और वह झोपड़ी में रहता था । उस गरीब ने प्रभु और माता का स्वागत किया और दूध दिया । प्रभु श्री महादेवजी बाहर आकर बोले कि इसका अपनी गा य और माता से वियोग हो जाए । अब भगवती पार्वती माता से रहा नहीं गया । उन्होंने प्रभु से पूछा कि यह कैसी श्रीलीला है । प्रभु श्री महादेवजी ने कहा ...