Skip to main content

Posts

83. प्रभु द्वारा सब संभव

  प्रभु के शब्दकोश में असंभव शब्द ही नहीं है । प्रभु सभी से सब कुछ करा सकते हैं । इसकी एक बहुत सुंदर कथा एक संत सु ना ते थे । एक गांव में एक बुढ़िया रहती थी जो प्रभु की बड़ी भक्त थी । उसका पूरा दिन सेवा-पूजा में ही जाता था । प्रारब्धवश घर में काफी सदस्य थे और घर में गरीबी थी । कभी-कभी एक-दो दिन भोजन की व्यवस्था नहीं होती थी । एक बार ऐसा ही हुआ तो बुढ़िया ने मंदिर में सत्संग सुनने के बाद संत से कहकर घोषणा करवा दी कि प्रभु किसी को कृपा करने मदद के रूप में भेजें । एक सेठजी का मुनीम सत्संग में आया था उसने जाकर यह बात दूसरे दिन अपने सेठजी को कही । सेठजी पक्के नास्तिक थे और भगवान को नहीं मानते थे । उन्होंने मजाक करने के लिए अपने मुनीम को कहा कि खूब सारा राशन उस बुढ़िया को देकर आओ और कहना कि यह भगवान ने नहीं बल्कि शैतान ने भिजवाया है । मुनीम आज्ञा पालन करने हेतु चला गया । बुढ़िया ने राशन लिया, भोजन बनाया और सभी परिवारवालों को खिलाया । मुनीम ने कहा कि आप पूछेंगी नहीं कि राशन किसने भेजा है ? बुढ़िया ने बड़ा मार्मिक और हृदयस्पर्शी उत्तर दिया कि मेरे प्रभु ने एक शैतान को माध्यम बनाकर मेरा म...
Recent posts

82. प्रभु नाम की महिमा

अंतकाल में प्रभु की स्मृति हो जाए तो यह सभी साधनों का फल होता है क्योंकि प्रभु स्मृति के कारण जिसका अंत सुधर गया उसका जन्म स्वतः ही सुधर गया । सभी साधन जीवनकाल में इसलिए किए जाते हैं कि अंत समय प्रभु का स्मरण हो जाए और हम जन्म-मृत्यु के चक्र से, संसार के आवागमन के चक्र से छूटकर प्रभु के श्रीधाम पहुँच जाए । एक संत एक कथा सुनाते थे । एक सेठजी को एक बहेलिए ने एक वैष्णव के घर में पाला हुआ तोता बेचा । तोता हरदम राम-राम, गोविंद-गोविंद कहता था । सेठजी को तोते से प्रेम हो गया और उन्होंने भी अनायास तोते के सामने राम-राम गोविंद-गोविंद कहने की आदत डाल ली । ऐसा करते-करते बहुत वर्ष बीत गए । सेठजी बूढ़े हो गए । मृत्यु बेला पर सेठजी को यमदूत दिखे तो तोता उसी समय बोल पड़ा राम-राम । सेठजी ने भी कहा राम-राम और प्रभु के पार्षद तुरंत आ गए । प्रभु के पार्षद सेठजी को प्रभु के धाम लेकर चले गए । यमदूतों को खाली हाथ लौटना पड़ा । अंत बेला पर प्रभु का नाम लेने का फल यह होता है कि वह हमें प्रभु के श्रीधाम की प्राप्ति करवा देता है । इसलिए ही कहा गया है कि नाम जप निरंतर करते रहें क्योंकि कौन-सी श्‍वास हमारी आखि...

81. भक्ति का दीप

  भक्ति का दीप जीवन में जलाना चाहिए । इससे हमारा मानव जीवन कृतार्थ होता है और प्रभु प्रसन्न होते हैं । मानव जीवन की अंतिम उपलब्धि भक्ति ही है । जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ भक्ति है । एक संत एक कथा सुनाते थे   । एक राजा ने अपने तीन पुत्रों को सौ - सौ स्वर्ण मुद्रिकाएं दी और कहा कि अपने-अपने महल को भर दो । एक ने शराब पी कर मुद्रिकाएं खत्म कर दी , दूसरे ने शहर के कचरे से महल को भर दिया और तीसरे ने दीपक जलाकर पूरा महल प्रकाश से भर दिया । राजा ने तीसरे बेटे से प्रसन्न होकर उसे युवराज नियुक्त किया । अध्यात्म की दृष्टि से देखें तो राजा प्रभु हैं और संतानें हम सब हैं । महल हमारा शरीर है । पहले राजकुमार की तरह कुछ लोग खाओ-पियो और मौज करो की जिंदगी में अपना जीवन व्यर्थ कर देते हैं । दूसरे राजकुमार की तरह कुछ संसार की व्यर्थ गंदगी से अपना जीवन भर देते हैं । पर तीसरे राजकुमार की तरह लायक व्यक्ति भक्ति के दीपक से अपने जीवन को जगमगा कर उसे सफल कर लेता है ।

80. रथ की बागडोर

अपने जीवन रथ की बागडोर प्रभु को सौंप देनी चाहिए । इससे हमारा पूरा-का-पूरा दायित्व प्रभु का हो जाता है । प्रभु हमारे रथ की बागडोर संभाल लेते हैं तो हमें जीवन में विजयश्री मिलती है और हमारा जीवन सफल होता है । जो जीव सच्चा भक्त होता है वह अपने जीवन रथ की डोर प्रभु को सौंप के रखता है । ऐसे व्यक्ति द्वारा कभी कोई गलत निर्णय नहीं होता । महाभारत युद्ध का प्रसंग देखें । श्री अर्जुनजी ने अपने रथ की बागडोर प्रभु को सौंप रखी थी । इतनी बड़ी प्रभु की नारायणी सेवा को ठुकराकर बिना शस्त्र उठाने का प्रण किए प्रभु को श्री अर्जुनजी ने अपने पक्ष में रखा । कौरव से ना में महार थियों की फौज थी । श्री अर्जुनजी से कहीं ज्यादा बलशाली और इच्छा मृत्यु के वरदान प्राप्त महारथी श्री भीष्म पितामह थे । गुरु द्रोणाचार्यजी से तो श्री अर्जुनजी ने धनुर्विद्या सीखी थी, वे भी विपक्ष में थे । महाबली कर्ण धर्म और कर्म में बहुत श्रेष्ठ थे । ये सभी योद्धा हार गए और पांड वों की विजय हुई क्योंकि श्री अर्जुनजी ने युद्ध से पहले ही अपने जीवन रथ की डोर प्रभु श्री कृष्णजी के श्रीहाथों में सौंप दी थी । हमें भी इसी तरह अपने जीवन...

79. प्रभु में विश्वास

प्रभु में विश्वास और श्रद्धा रखकर प्रभु को अर्पण करके हम कुछ भी पाते हैं तो वह वस्तु प्रसाद बन जाती है और वह हमारा मंगल और कल्याण ही करती है । एक संत प्रभु की भक्ति करते थे और प्रभु को अर्पण करके ही कुछ खाते-पीते थे । एक बार गांव की एक दुकान पर आए और कुछ नमक मांगा जिसके साथ भिक्षा में मिली रोटी का भोग प्रभु को लगाकर उन्हें पा लेना था । सेठजी दुकान पर नहीं थे तो उनके बेटे ने सफेद दिखने वाला एक पाउडर नमक समझकर दे दिया जो कीटाणु मारने का जहरीला पाउडर था । संत ने उसका प्रभु को भोग लगाया और जैसे ही पाने बैठे सेठजी आ गए । बेटा वह डब्बा बंद कर ही रहा था कि सेठजी की नजर पड़ी, पूछा तो दंग रह गए कि मेरे बेटे ने जहरीला पदार्थ संत को दे दिया । उन्होंने तुरंत संत को कहा कि इसे मत खाएं क्योंकि यह जहरीला है । संत ने बड़े भाव से कहा कि अब तो वे प्रभु को भोग लगा चुके हैं और प्रसाद का त्याग नहीं किया जा सकता । प्रभु के विश्वास पर उन्होंने भोग आरोग लिया । दो-तीन घं टे बी ते और सेठजी संत के साथ-साथ रहे कि कहीं उल्टी हुई और बीमार पड़े तो तुरंत डॉक्टर के पास ले जाएंगे पर संत स्वस्थ थे । जहाँ संत रहा कर...

78. जैसा चिंतन वैसा फल

हम जैसा चिंतन करते हैं हमारा मन भी वैसा ही बनता जाता है और हमें फल भी उसी अनुरूप मिलता है । इसलिए चिंतन सदैव भगवत् विषय का और अच्छाइयों का ही होना चाहिए तभी हमारा कल्याण और मंगल होगा । सतयुग की कथा है । एक गांव के बाहर एक साधु झोपड़ी में रहता था और एक नृत्यांगना अपने घर में रहती थी । साधु भजन और पूजन तो करता था पर नृत्यांगना के भोग-विलास, सुख-संपत्ति का चिंतन करता रहता था । साधु के मन में कई बार पछतावा होता था कि उसने विरक्ति का मार्ग लेकर गलती की और उसे भी संसार का सुख लेना चाहिए था । दूसरी तरफ नृत्यांगना रोज सोचती थी कि लोगों को रिझाने और पैसा कमाने का धंधा छोड़कर साधु की तरह अपना जीवन भजन और पूजन में लगाना चाहिए था । दोनों का जब शरीर छूटा और दोनों का हिसाब विचित्र ढंग से हुआ । क्योंकि साधु ने शरीर से भजन और पूजन किया था इसलिए गांव वालों ने उनकी समाधि बनाई । नृत्यांगना ने शरीर से बुरा कृत्य किया था तो उसका अंतिम संस्कार किसी ने नहीं किया और गिद्ध और जानवर उसके शरीर को खा गए । पर चूंकि   नृत्यांगना ने मन से भजन और पूजन का संकल्प किया था उसे मानव देह में एक भजनानंदी ब्राह्मण ...

77. जैसी करनी वैसी भरनी

प्रभु जिसकी जैसी रुचि होती है उस अनुसार ही उसे देते हैं । किसी की संसार में रुचि होती है तो उसे संसार देते हैं पर जिसकी भक्ति में रुचि है उसकी भक्ति परिपक्व हो, ऐसा विधान रचते हैं ।   देवों के देव प्रभु श्री महादेवजी की एक मार्मिक कथा एक संत सु ना ते थे । एक बार भ्रमण करते हुए भगवती पार्वती माता के साथ प्रभु श्री महादेवजी पृथ्वीलोक आए । पहले एक कंजूस सेठ के घर साधु वेश बनाकर गए और सौ ग्राम दूध अभिषेक के लिए मांगा । सेठ ने मना कर दिया और बुरा भला कहा तो प्रभु श्री महादेवजी ने घर से बाहर आकर उसे आशीर्वाद दिया कि उस सेठ की संपत्ति सौ गुना बढ़ जाए । भगवती पार्वती माता ने आश्चर्य किया पर चुप रही । फिर प्रभु और माता साधु वेश में एक भजनानंदी गरीब व्यक्ति के पास गए । उसके पास एक गाय थी और उसकी माता थी और वह झोपड़ी में रहता था । उस गरीब ने प्रभु और माता का स्वागत किया और दूध दिया । प्रभु श्री महादेवजी बाहर आकर बोले कि इसका अपनी गा य और माता से वियोग हो जाए । अब भगवती पार्वती माता से रहा नहीं गया । उन्होंने प्रभु से पूछा कि यह कैसी श्रीलीला है । प्रभु श्री महादेवजी ने कहा ...