भक्ति का दीप जीवन में जलाना चाहिए । इससे हमारा मानव जीवन कृतार्थ होता है और प्रभु प्रसन्न होते हैं । मानव जीवन की अंतिम उपलब्धि भक्ति ही है । जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ भक्ति है । एक संत एक कथा सुनाते थे । एक राजा ने अपने तीन पुत्रों को सौ - सौ स्वर्ण मुद्रिकाएं दी और कहा कि अपने-अपने महल को भर दो । एक ने शराब पी कर मुद्रिकाएं खत्म कर दी , दूसरे ने शहर के कचरे से महल को भर दिया और तीसरे ने दीपक जलाकर पूरा महल प्रकाश से भर दिया । राजा ने तीसरे बेटे से प्रसन्न होकर उसे युवराज नियुक्त किया । अध्यात्म की दृष्टि से देखें तो राजा प्रभु हैं और संतानें हम सब हैं । महल हमारा शरीर है । पहले राजकुमार की तरह कुछ लोग खाओ-पियो और मौज करो की जिंदगी में अपना जीवन व्यर्थ कर देते हैं । दूसरे राजकुमार की तरह कुछ संसार की व्यर्थ गंदगी से अपना जीवन भर देते हैं । पर तीसरे राजकुमार की तरह लायक व्यक्ति भक्ति के दीपक से अपने जीवन को जगमगा कर उसे सफल कर लेता है ।
अपने जीवन रथ की बागडोर प्रभु को सौंप देनी चाहिए । इससे हमारा पूरा-का-पूरा दायित्व प्रभु का हो जाता है । प्रभु हमारे रथ की बागडोर संभाल लेते हैं तो हमें जीवन में विजयश्री मिलती है और हमारा जीवन सफल होता है । जो जीव सच्चा भक्त होता है वह अपने जीवन रथ की डोर प्रभु को सौंप के रखता है । ऐसे व्यक्ति द्वारा कभी कोई गलत निर्णय नहीं होता । महाभारत युद्ध का प्रसंग देखें । श्री अर्जुनजी ने अपने रथ की बागडोर प्रभु को सौंप रखी थी । इतनी बड़ी प्रभु की नारायणी सेवा को ठुकराकर बिना शस्त्र उठाने का प्रण किए प्रभु को श्री अर्जुनजी ने अपने पक्ष में रखा । कौरव से ना में महार थियों की फौज थी । श्री अर्जुनजी से कहीं ज्यादा बलशाली और इच्छा मृत्यु के वरदान प्राप्त महारथी श्री भीष्म पितामह थे । गुरु द्रोणाचार्यजी से तो श्री अर्जुनजी ने धनुर्विद्या सीखी थी, वे भी विपक्ष में थे । महाबली कर्ण धर्म और कर्म में बहुत श्रेष्ठ थे । ये सभी योद्धा हार गए और पांड वों की विजय हुई क्योंकि श्री अर्जुनजी ने युद्ध से पहले ही अपने जीवन रथ की डोर प्रभु श्री कृष्णजी के श्रीहाथों में सौंप दी थी । हमें भी इसी तरह अपने जीवन...