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Showing posts from 2022

22. प्रभु पर विश्वास

प्रभु पर पूर्ण विश्वास होना मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है । प्रभु केवल यह देखते हैं कि यह जीव संसार पर , धन पर , शक्ति पर और साधन पर विश्वास करता है या केवल मेरे पर विश्वास करता है । जो केवल प्रभु पर विश्वास करते हैं प्रभु उनका पूरा दायित्व उठाते हैं , उन्हें संकट से बचाते हैं और उनका मंगल करते हैं । हम टैक्सी में बैठते हैं तो ड्राइवर का बिना लाइसेंस देखे ही उसपर विश्वास कर उसके साथ यात्रा कर लेते हैं । हवाई जहाज में पायलट का बिना लाइसेंस देखे ही विश्वास कर हवाई यात्रा कर लेते हैं पर जब प्रभु पर विश्वास करने का समय आता है तो हम चूक जाते हैं । एक कस्बे में 3 वर्षों तक अकाल पड़ा । गांव वाले बहुत परेशान थे । खेती सूख गई , पीने के पानी की किल्लत हो गई । ब्राह्मणों से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि 18 दिवसीय यज्ञ कराया जाए । यज्ञ प्रारंभ हुआ । सब गांव वाले रोजाना यज्ञ में शामिल होने आते । पूर्णाहुति यानी यज्ञ के अंतिम दिन गांव का एक छोटा बालक भी यज्ञ के दर्शन करने आया पर हाथ में छाता लेकर आया । तब तक वर्षा के कोई आसार नहीं थे और धूप निकली हुई थी । गांव वालों ने बालक से मजाक में पूछा

21. प्रभु युक्ति से भक्तों को बचाते हैं

भक्त कितना भी बिगाड़ कर ले पर अगर अनन्यता से प्रभु पर भरोसा करता है तो प्रभु अंतिम अवस्था में भी युक्ति निकाल अपने भक्तों को बचाते हैं और उसका बाल भी बाँका नहीं होने देते । प्रसंग श्री महाभारतजी के युद्ध का है । प्रभु श्री कृष्णजी के संरक्षण में पांडवों ने कौरव सेना और कौरव महारथियों का सफाया कर दिया । केवल दुर्योधन घायल अवस्था में बचा था और वह जाकर एक तालाब में छिप गया । प्रभु यह जानते थे और वे पांचों पांडवों को लेकर तालाब पर गए । पांडवों ने दुर्योधन को युद्ध के लिए ललकारा । दुर्योधन तालाब से बाहर आया तो श्री युधिष्ठिरजी ने उससे कहा कि हम पांचों में से किसी एक को गदा युद्ध करने के लिए चुन लो । प्रभु तुरंत भाप गए कि श्री युधिष्ठिरजी ने आवेश में गलत कह दिया । दुर्योधन प्रभु श्री बलरामजी से गदा युद्ध सीखा हुआ है और बहुत बलवान है और श्री युधिष्ठिरजी , श्री अर्जुनजी , श्री नकुलजी और श्री सहदेवजी को आसानी से गदा युद्ध में परास्त करके मार सकता है । पांडवों का एक प्रण था कि एक पांडव भी अगर मारा जाता है तो युद्ध बंद कर बाकी बचे हुए चारों पांडव अग्नि प्रवेश करेंगे । प्रभु ने देखा कि अगर दुर

20. हर जगह प्रभु को साथ रखें

एक आदत बना लें कि जब भी घर से निकलें तो मन में कहें कि प्रभु साथ चलें और मार्गदर्शन करें ताकि मैं कोई गलती न कर बैठूं । घर में रहें तो प्रभु की  मनोमय (मन में बनाई गई प्रभु की प्रतिमा)  प्रतिमा अपने कार्यस्थल में लगा कर रखें और बीच-बीच में कार्य करते-करते प्रभु को देखें और बात करें कि मैं सही कार्य कर रहा हूँ की नहीं । पांडवों ने प्रभु श्री कृष्णजी को सदैव अपने साथ रखा और प्रभु ने पग-पग पर उनकी रक्षा की ।   सौ कौरव मारे गए पर पांचो पांडव प्रभु कृपा से बच गए । भगवती कुंतीजी , जो पांडवों की माता थी , उन्होंने प्रभु का एहसान मानते हुए सारे प्रसंग गिनाए जब प्रभु ने साक्षात रूप से पांडवों के प्राणों की रक्षा की । इतना बड़ा युद्ध , अपने से विशाल सेना और अनेक महारथियों के होने के बाद भी प्रभु के कारण पांडवों को विजयश्री मिली , वो भी प्रभु के बिना शस्त्र उठाए । पर पांडव एक जगह प्रभु को बिना लिए और प्रभु को बिना पूछे गए और फंस गए । यह प्रसंग था जुए के न्‍योते का जो उनके ताऊजी धृतराष्ट्र ने भिजवाया था । अगर वे प्रभु से पूछते तो प्रभु मना कर देते कि नहीं जाना है । अगर पांडव दुहाई देते कि ताऊ

19. भक्ति की अदभुत मिसाल

वैसे तो भक्ति जगत में कई बड़े - बड़े भक्त हर युग में हुए हैं पर चारों युगों में प्रभु श्री हनुमानजी जैसा कोई भक्‍त न कभी हुआ है और न आगे होगा । प्रभु श्री हनुमानजी की श्रीराम भक्ति इतनी श्रेष्ठ है कि प्रभु श्री रामजी ने अपने श्रीमुख से वह अमर वचन कहा कि वे कुछ भी करके , कैसे भी प्रभु श्री हनुमानजी के ऋण से उऋण नहीं हो सकते । प्रभु श्री हनुमानजी की भक्ति की एक बड़ी मार्मिक कथा आपको सुनाते हैं । लंका युद्ध हो चुका था और प्रभु का श्री अयोध्याजी में आगमन और राजतिलक भी हो चुका था । राजतिलक वाली रात चारों भाई और बहुएं और प्रभु श्री हनुमानजी प्रभु के कक्ष में उपस्थित थे । रात्रि ज्यादा होती देख श्री शत्रुघ्नजी ने सबसे कहा कि भैया और भाभी को विश्राम की जरूरत है , इसलिए सबको चलना चाहिए और उन्हें एकांत देना चाहिए । सब प्रभु और माता को प्रणाम करके चलने लगे पर प्रभु श्री हनुमानजी प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही बैठे रहे । तब श्री शत्रुघ्नजी ने उनसे कहा कि आपको भी चलना चाहिए और प्रभु को एकांत देना चाहिए । प्रभु श्री हनुमानजी ने भगवती सीता माता की तरफ इशारा करके कहा कि माता भी तो बैठी हैं । तो श्र

18. अनन्यता प्रभु को सबसे प्रिय

शास्त्रों में एक बात हर जगह प्रतिपादित है कि प्रभु के लिए अनन्यता होनी चाहिए । अनन्यता का सीधा अर्थ है कि अन्य नहीं , केवल प्रभु । अन्य को हम साथ में रखते हैं तो प्रभु हस्तक्षेप नहीं करते । भगवती द्रौपदीजी की लाज प्रभु ने बचाई । भगवती द्रौपदीजी ने प्रभु से बाद में एक बार प्रश्न किया कि जब लाज बचानी थी तो पहले क्यों नहीं आए , अंतिम अवस्था में ही क्यों आए ? प्रभु ने बड़ा मार्मिक उत्तर दिया । प्रभु बोले कि पहले तुमने मुझे पुकारा और साथ में अपने पतियों को भी पुकारा । पति कुछ न कर पाए तो मेरे साथ में श्री भीष्‍म पितामह , गुरु श्री द्रोणाचार्य और श्री कृपाचार्य और ससुर धृतराष्ट्र को भी पुकारा । फिर मेरे साथ अपने बल पर भरोसा किया , दोनों हाथों से साड़ी पकड़ कर रखी और मुँह से साड़ी दबा कर रखी । फिर एक हाथ से साड़ी छोड़ी , कुछ समय के बाद दूसरे हाथ से साड़ी छोड़ी । पर जब अंतिम जगह मुँह से पकड़ी साड़ी भी छोड़ी और मुझे अनन्य होकर पुकारा तो मैं तुरंत आ गया और वस्त्र अवतार लेकर अपने भक्‍त से लिपट गया । प्रभु ने कहा कि जब तुमने सबसे पहले पुकारा था तो मैं श्रीद्वारकापुरी में खाना खाने बैठा था

17. मृत्यु के बाद केवल भक्ति काम आएगी

मृत्यु के बाद हमारा परिवार , जमीन जायदाद , पू रा जीवन लगाकर कमाए  धन में से कुछ भी हमारे काम आने वाला नहीं है । यह सब कुछ य हीं संसार में रह जाने वाला है और हमें निराश मन से सब कुछ छोड़कर आगे की यात्रा में जाना पड़ेगा । मृत्यु के बाद जो हमारे साथ जाए गा वह हमारी उस जीवन में की हुई प्रभु की भक्ति ही है । प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में कहा है कि कोई जीव अपनी भक्ति की पूंजी को कभी खोता नहीं है और मृत्यु के बाद भी वह भक्ति की पूंजी उसके साथ रहती है और उसके काम आती है । एक संत कुटिया में रहते थे और प्रभु की भक्ति करते थे । उन के भजनानंदी होने की ख्याति सब तरफ फैली हुई थी । पास का एक राज्य बड़ा संपन्न था और राजा के पास खूब संपत्ति थी । उस राजा को अभिमान भी था कि इत ने युद्ध विजय करके अपने राज्य की संपत्ति और सीमा को उसने बहुत बढ़ाया है । एक बार पूरे लवाज मे के साथ भेंट सामग्री में बेशकीमती रत्‍न लेकर वह उन संत से मिलने गया । संत उस समय अपनी फटी धोती को रफू कर रहे थे । राजा हाथी पर बैठकर आया और उसे देखते ही संत भाप गए कि इसका अभिमान ही इसे यहाँ लाया है । राजा ने संत को प्रणाम किया

16. प्रभु को किए प्रणाम का महत्व

प्रभु को किए प्रणाम का कितना बड़ा महत्व है यह हमें समझना चाहिए । प्रभु को प्रणाम करने से प्रभु का मंगल आशीर्वाद हमें मिलता है जिससे हमारा कल्याण - ही - कल्याण होता है । नित्य मन से किया प्रणाम प्रभु को हमारे वश में कर देता है । प्रणाम करने से प्रभु का रक्षा कवच हमें प्राप्त हो जाता है । श्री महाभारतजी का एक जीवंत उदाहरण है ।   सांसारिक व्यक्ति को किया प्रणाम भी कितना फलता है तो परमपिता प्रभु को किया प्रणाम तो हमारा परम मंगल करता ही है । श्री महाभारतजी के युद्ध में कौरव और पांडवों की सेना आमने-सामने थी और कुछ ही समय बाद युद्ध प्रारंभ होने वाला था । एकाएक स ब ने देखा कि श्री युधिष्ठिरजी अपने शस्त्र रखकर रथ से उतरे और पैदल कौरव पक्ष में गए । उन्होंने श्री भिष्‍म पितामह और गुरु श्री द्रोणाचार्यजी को झुककर प्रणाम किया और आशीर्वाद मांगा । दोनों को आशीर्वाद रूप में कहना पड़ा कि विजयी हो । अब जरा सोचें अगर अपनी दुर्बुद्धि , अहंकार और अकड़ छोड़कर दुर्योधन भी यह देखकर पांडव पक्ष में चला आता और प्रभु श्री कृष्णजी को प्रणाम करता तो प्रभु को भी आशीर्वाद देना पड़ता और प्रभु भी कहते विज यी भ वः

15. भक्ति की तैयारी

हमारे मन को बचपन से ही प्रभु भक्ति के लिए तैयार करना चाहिए । भक्ति प्रभु को पाने का और मानव जीवन को सफल बनाने का सबसे सटीक और सबसे सरल साधन है । जब हम बचपन में श्री प्रह्लादजी , श्री ध्रुवजी के श्री चरित्र से अपने मन को प्रभावित करते हैं तो मन भी उनका अनुसरण करने को तैयार होने लगता है । पर हमारा दुर्भाग्य है कि हम बचपन में श्री प्रह्लादजी , श्री ध्रुवजी को अपना आदर्श नहीं बना कर बचपन में क्रिकेटर और फिल्म स्टार को अपना आदर्श बनाते हैं । जैसे रास्ते पर चलने वाला कुत्ता फालतू होता है और घर में पला हुआ कुत्ता पालतू होता है । फालतू कुत्ते को कोई भी मार सकता है पर पालतू कुत्ते को मारते ही उसका मालिक उसे बचाने आ जाता है । वैसे ही अगर हम प्रभु से नहीं जुड़े तो हम फालतू हैं और भक्ति से प्रभु से जुड़े हैं तो हम प्रभु के पालतू हैं । फिर कोई भी हमें कष्ट देता है तो प्रभु की शक्ति हमारे बचाव में तत्काल आ जाती है । जैसे पालतू कुत्ते को समझदारी से सिखाया जाता है कि दरवाजे पर आवाज आते ही उसे भौं क कर सबको सतर्क करना है और भी आजकल ट्रेनर बहुत सारे काम एक पालतू कुत्ते को सिखाते हैं और वह पालतू कुत

14. श्रीराम नाम की महिमा

सनातन धर्म में प्रभु के अगणित रूप और अगणित नाम हैं । यह सनातन धर्म का अद्वितीय गौरव है कि प्रभु कितने नाम और रूपों से इस धर्म में प्रकट हुए हैं । श्री रामचरितमानसजी में देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने प्रभु श्री रामजी से एक वरदान मांगा । उन्होंने मांगा कि प्रभु के सभी नामों में श्रीराम नाम का माहात्म्य सबसे विलक्षण हो । प्रभु ने ऐसा ही वरदान दिया और भारतवर्ष में प्राचीन काल से प्रभु श्री रामजी का नाम हर व्यवहार में प्रयोग में आने लग गया । कोई भी व्यक्ति दुःख में “ हे राम ” का उच्चारण करता मिलेगा । कोई पीड़ा में हो तो “ अरे राम बचाओ ” का उच्चारण करता मिलेगा । कोई लज्जा का कार्य करेगा तो कहने वाले कहेंगे कि “ हाय राम ” शर्म नहीं आई ऐसा करते हुए । कोई अशुभ घटना को देखकर हम “ अरे राम-राम ” ऐसा हो गया यह कहते हैं । किसी का अभिवादन करना है तो हम “ राम-राम ” कहते हैं । दो बार राम कहने का सीधा अर्थ है कि एक राम जो मेरे अंदर हैं और एक राम जो आपके अंदर हैं उन दोनों को प्रणाम करना और उन दोनों का अभिवादन करना । किसी को शपथ खानी हो तो आज भी “ राम दुहाई ” यानी प्रभु श्री रामजी के नाम की शपथ दिल

13. प्रभु भक्त की महिमा

प्रभु की भक्ति हमारा कितना उत्थान करवाती है और प्रभु का जन बन जाने से जगत में कितना मान मिलता है इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते । प्रभु स्वयं अपने भक्‍त का मान बढ़ाने के लिए कई चमत्कार करते हैं जिससे उनके प्रिय भक्‍त की कीर्ति चारों दिशाओं में फैल जाए । इससे प्रभु को जो सुख मिलता है उतना सुख प्रभु को अन्‍य किसी चीज से नहीं मिलता । एक राज्य में राजा के यहाँ एक मंत्री कार्य करता था जो कि भक्त था । वह रोज राज्यसभा में नीचे अपने स्थान पर खड़ा होकर ऊपर राजसिंहासन पर बैठे राजा के सामने हाथ जोड़कर खड़ा रहता था । एक दिन उसे यह भाव आया कि हाथ जोड़ना ही है तो प्रभु के जोड़ने चाहिए और उसने राजा को अपना इस्तीफा दे दिया । भक्त तो वह पहले से था ही अब वह जंगल में जाकर कुटिया में रहकर प्रभु की भक्ति करने लगा । प्रभु दिखाना चाहते थे कि उनसे जुड़ने पर क्या होता है । वह मंत्री एक संत के रूप में बहुत सिद्धियां प्राप्त कर ख्याति को प्राप्त हुआ । एक बार उस राजा के राज्य में अकाल पड़ा । दो-तीन वर्षों तक वर्षा ही नहीं हुई । किसी ने कहा कि किसी बड़े संत से अनुष्ठान कराना चाहिए । उस समय मंत्री के रूप में जो प

12. प्रभु का दिशा निर्देश

जो भक्त प्रभु की भक्ति करता है उसे समय-समय पर प्रभु का दिशानिर्देश और प्रभु की सहायता प्राप्त होती रहती है । किसी भी कार्य के सफल संपादन में नाम उस भक्त का होता है पर करने वाले प्रभु ही होते हैं । प्रभु कभी श्रेय लेना नहीं चाहते । अपने भक्त को श्रेय दिलाकर और जगत में उसका मान बढ़ाकर प्रभु को सबसे ज्यादा प्रसन्नता होती है । लंका में जब प्रभु श्री हनुमानजी पहुँचे तो प्रभु ने पहले से बाल्यकाल में ही उन्हें श्री अग्निदेवजी से वरदान दिला दिया था कि अग्नि उनका बाल भी बाँका नहीं कर सकेगी और प्रभु श्री हनुमानजी अग्नि के प्रभाव से सदा के लिए सुरक्षित रहेंगे । प्रभु ने ऐसा इसलिए करवाया क्योंकि प्रभु को पता था कि प्रभु श्री हनुमानजी को लंका जलाना है । लंका जलाने की प्रेरणा भी प्रभु ने अशोक वाटिका में पेड़ पर बैठे और भगवती सीता माता के दर्शन कर चुकने के बाद त्रिजटा के मुँह से स्वप्न के रूप में प्रभु श्री हनुमानजी को दी । प्रभु श्री हनुमानजी की श्री पूं छ जलाने की बुद्धि भी प्रभु ने भगवती सरस्वती माता के द्वारा रावण को दी । जब प्रभु श्री हनुमानजी की श्रीपूंछ में आग लगाई गई और प्रभु श्री हनुम

11. प्रभु के बराबर प्रभु का नाम

प्रभु के नाम जापक की इतनी महिमा होती है कि प्रभु के शस्त्र भी उसका सम्मान करते हैं और नाम जापक का अमंगल नहीं करते । प्रभु के नाम की महिमा अपार है और प्रभु के नाम में प्रभु की सारी शक्तियां समाहित है । जो - जो प्रभु कर सकते हैं प्रभु का नाम भी वह - वह कर सकता है । इससे ही हम प्रभु के नाम के सामर्थ्य का अंदाजा लगा सकते हैं । श्रीराम राज्य की एक कथा है । एक बार श्रीकाशी नरेश प्रभु श्री रामजी के दर्शन करने श्री अयोध्याजी आए । देवर्षि प्रभु श्री नारदजी प्रभु के नाम की महिमा प्रकट करना चाहते थे इसलिए उन्होंने श्रीकाशी नरेश को इसके लिए माध्यम बनाया और उनसे कहा कि राज्यसभा में सबको प्रणाम करना पर ऋषि श्री विश्वामित्रजी को न तो प्रणाम करना और न ही उनकी तरफ देखना । श्रीकाशी नरेश ने ऐसा ही किया और इससे ऋषि श्री विश्वामित्रजी क्रोधित होकर रुष्ट हो गए और प्रभु से कहा कि आज सूर्यास्त तक इस श्रीकाशी नरेश का आपको वध करना है । श्रीकाशी नरेश यह सुनते ही भागे । रास्ते में देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने उन्हें प्रभु श्री हनुमानजी की माता भगवती अंजनीजी की शरण जाने को कहा । वे तुरंत भगवती अंजनी माता की शरण

10. प्रभु नाम की महिमा

प्रभु नाम की महिमा असीम है । जिसको प्रभु नाम पर विश्वास होता है उसके लिए नाम भगवान सब कुछ करते हैं । ऐसा कुछ भी नहीं जो प्रभु का नाम नहीं कर सकता क्योंकि नामी प्रभु ने अपनी समस्त शक्तियों को अपने नाम में स्थापित कर रखा है । इसलिए हमें प्रभु के नाम पर पूर्ण विश्वास होना चाहिए और हमें नियमित प्रभु का नाम जप करना चाहिए । विपत्ति में तो जरूर करना चाहिए क्योंकि विपत्ति का निवारण इससे ही होता है । एक संत एक कथा सुनाते थे कि एक विदेशी एक बंदूक लेकर बस में सफर कर रहा था । बस एक गांव में रुकी । बस को आधा घंटा रुकना था तो वह विदेशी भी अपनी बंदूक लेकर टहलने के लिए बस से उतर गया । उसने भारत के संतों के विषय में काफी सुन रखा था । वहाँ गांव में उसे एक संत माला जपते हुए मिले । उस विदेशी ने उस संत के पास जाकर पूछा कि यह क्या कर रहे हैं । संत ने माला दिखाकर कहा कि मैं प्रभु का नाम जप रहा हूँ । उस विदेशी ने पूछा कि इससे क्या होता है । संत सच्चे थे और उनके मन में आया कि विदेशी को प्रभु नाम का प्रभाव दिखाना चाहिए । संत ने विदेशी की बंदूक की तरफ इशारा करके पूछा इससे क्या होता है । विदेशी ने तुरंत उस वृक

09. भक्तों का ऋण

प्रभु को अपने भक्‍त बहुत प्रिय हैं । भक्तों द्वारा प्रभु के लिए किए हुए थो ड़े - से कार्य को प्रभु मेरु पर्वत समान बहुत बड़ा मानते हैं । प्रभु श्री हनुमानजी द्वारा की गई सेवा को तो प्रभु श्री रामजी ने इतना बड़ा माना कि उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि कुछ भी करके वे कभी भी प्रभु श्री हनुमानजी के सेवा ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकते । यह कौन कह रहा है ? यह जगत नियंता प्रभु कह रहे हैं जिनकी भृकुटी के इशारे से ब्रह्मांडों का समूह निर्माण और लय हो जाता है और जिनके संकल्प मात्र से सभी कार्य स्वतः ही सिद्ध हो जाते हैं । श्रीराम दरबार का एक प्रसंग है । प्रभु राजसिंहासन पर भगवती सीता माता के साथ बैठे थे और हरदम की तरह प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा में प्रभु श्री हनुमानजी बैठे थे । माता ने देखा कि प्रभु को जब भी राज - काज की बातों से समय मिलता वे अपने प्रिय प्रभु श्री हनुमानजी को देखते हैं पर जब प्रभु श्री हनुमानजी अपनी नजरें उठाकर प्रभु से नजर मिलाने के लिए देखते तो प्रभु तुरंत दूसरी तरफ देखने लगते । माता ने दिन भर में ऐसा काफी बार होते देखा । रात्रि को शयनकक्ष में माता ने प्रभु से प

08. प्रभु के श्रीकमलचरण

भक्तों को प्रभु के श्रीकमलचरण बहुत प्रिय होते हैं । वे अपना स्थान और अधिकार प्रभु के श्रीकमलचरणों में मानते हैं । वे सदा प्रभु के श्रीकमलचरणों की छत्रछाया में रहना चाहते हैं । प्रभु के श्रीकमलचरणों में रहने से वे निश्चिंत और अभय रहते हैं । प्रभु के श्रीकमलचरणों का सानिध्य हर भक्ति करने वाले भक्तों ने चाहा है और पाया है । इसका सबसे बड़ा उदाहरण स्वयं प्रभु श्री हनुमानजी हैं । जब लंका पर प्रभु ने विजय प्राप्त की और वनवास काल पूर्ण करके श्री अयोध्याजी लौटे तो प्रभु के साथ प्रभु श्री हनुमानजी , श्री सुग्रीवजी , श्री जाम्बवन्तजी , श्री अंगदजी , श्री विभीषणजी और अन्य बहुत सारे प्रमुख वानर वीर श्री अयोध्याजी प्रभु के राज्याभिषेक में शामिल होने के लिए आए । प्रभु का राज्याभिषेक हुआ । कुछ दिन तक सभी प्रभु की सेवा में रुके फिर प्रभु ने सबको आशीर्वाद , भेंट और आदर - सम्मान देकर विदा किया । पर जब प्रभु श्री हनुमानजी की बारी आई तो उन्होंने कहा कि वे प्रभु की सेवा में श्री अयोध्याजी में ही रहना चाहते हैं । प्रभु श्री रामजी और भगवती सीता माता भी मन से यही चाहते थे तो उन्होंने प्रभु श्री