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15. भक्ति की तैयारी

हमारे मन को बचपन से ही प्रभु भक्ति के लिए तैयार करना चाहिए । भक्ति प्रभु को पाने का और मानव जीवन को सफल बनाने का सबसे सटीक और सबसे सरल साधन है । जब हम बचपन में श्री प्रह्लादजी, श्री ध्रुवजी के श्री चरित्र से अपने मन को प्रभावित करते हैं तो मन भी उनका अनुसरण करने को तैयार होने लगता है । पर हमारा दुर्भाग्य है कि हम बचपन में श्री प्रह्लादजी, श्री ध्रुवजी को अपना आदर्श नहीं बना कर बचपन में क्रिकेटर और फिल्म स्टार को अपना आदर्श बनाते हैं ।

जैसे रास्ते पर चलने वाला कुत्ता फालतू होता है और घर में पला हुआ कुत्ता पालतू होता है । फालतू कुत्ते को कोई भी मार सकता है पर पालतू कुत्ते को मारते ही उसका मालिक उसे बचाने आ जाता है । वैसे ही अगर हम प्रभु से नहीं जुड़े तो हम फालतू हैं और भक्ति से प्रभु से जुड़े हैं तो हम प्रभु के पालतू हैं । फिर कोई भी हमें कष्ट देता है तो प्रभु की शक्ति हमारे बचाव में तत्काल आ जाती है । जैसे पालतू कुत्ते को समझदारी से सिखाया जाता है कि दरवाजे पर आवाज आते ही उसे भौंक कर सबको सतर्क करना है और भी आजकल ट्रेनर बहुत सारे काम एक पालतू कुत्ते को सिखाते हैं और वह पालतू कुत्ता सीख भी जाता है । वैसे ही बचपन से हमें हमारे बाल मन को प्रभु की भक्ति करना सिखाना चाहिए तो वह युवावस्था तक भक्ति में रमना सीख जाएगा । युवावस्था भक्ति करने की सबसे उत्तम अवस्था है क्योंकि हमारा शरीर और मस्तिष्क हमारा सहयोग करते हैं । बुढ़ापे में हमारा मस्तिक और हमारा शरीर हमारा सहयोग नहीं करते और हमें वेदना देते हैं जिस कारण हम भक्ति नहीं कर पाते । इसलिए बचपन से प्रभु की भक्ति की तैयारी करना श्रेयस्कर है और सभी को अपने मानव जीवन के सफल उपयोग के लिए ऐसा करना चाहिए ।

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01. प्रभु के दो बड़े प्रण

प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में अपने आश्रित का योगक्षेम वहन करने का प्रण लिया है । योगक्षेम दो शब्दों से बना है योग एवं क्षेम । योग का यहाँ अर्थ है कि प्रभु कहते हैं कि उनकी शरण ग्रहण करने वाले को जिस भी चीज की जब भी जरूरत होगी प्रभु उसे उपलब्ध करवाएंगे । क्षेम का अर्थ है कि प्रभु कहते हैं कि उसकी शरण ग्रहण करने वाले के पास जो भी है प्रभु उसकी रक्षा करेंगे । यह दोनों कितने विलक्षण प्रभु के प्रण हैं कि जब भी जिस भी चीज की उसे जरूरत होगी वह प्रभु पहुँचाएंगे और जो उसके पास है प्रभु उसकी रक्षा करेंगे । एक संत एक तीर्थ में रहने वाले पंडितजी की एक सत्य कथा सुनाते थे । एक पंडितजी नियमित रूप से मंदिर में श्रीमद् भगवद् गीताजी का पाठ करते थे और जो भी चढ़ावा आ जाता था उससे अपना घर चलाते थे । एक बार ऐसा हुआ कि तीन दिन तक कोई चढ़ावा नहीं आया और घर का चूल्हा बंद हो गया । उनकी पत्नी जो उनके जैसे श्रद्धावाली नहीं थी वह बिगड़ गई कि आपके प्रभु ऐसा योगक्षेम वहन करते हैं । पंडितजी को भी पत्नी की बात सुनकर उस समय गुस्सा आ गया और वे रात को मंदिर गए और श्रीमद् भगवद् गीताजी में लिखे योगक्षेम शब्द को ...

04. प्रभु की सेवा

हमारे घर के मंदिर में प्रभु का विग्रह होता है और हम उसकी सेवा करते हैं । सेवा करते - करते कभी हमें अपनी सेवा पर अभिमान आ जाए या लगे कि हम कितनी उत्कृष्ट सेवा कर रहे हैं तो प्रभु उस सेवा को स्वीकार नहीं करते । ऐसा नहीं हो इसलिए एक संत एक प्रसंग सुनाते थे । इस प्रसंग को बीच-बीच में पढ़ते रहना चाहिए । यह प्रसंग प्रभु श्री कृष्णजी और भगवती यशोदा माता के संदर्भ में है । श्री नंद बाबा के पास नौ लाख गौ - माताएं थी । इसमें से श्रेष्ठ नस्ल की एक लाख गौ - माताओं को उन्होंने प्रभु के लिए रखा था यानी   उनका दूध अन्य कोई काम   में नहीं लिया जाता था । एक लाख गौ - माताओं का दूध दस हजार गौ - माताओं को पिलाया जाता था । दस हजार गौ - माताओं का दूध एक हजार गौ - माताओं को पिलाया जाता था । एक हजार गौ - माताओं का दूध सौ गौ - माताओं को पिलाया जाता था । सौ गौ - माताओं का दूध दस गौ - माताओं को पिलाया जाता था । दस गौ - माताओं का दूध एक गौ - माता को पिलाया जाता था इन एक गौ - माता को पद्मगंधा गौ - माता कहा जाता था । इन पद्मगंधा गौ - माता का दूध प्रभु को पिलाने के लिए, दही, छाछ, मक्खन के लिए उपयोग में लि...

03. भक्तों का हित करने का प्रभु का प्रण

प्रभु का प्रण है कि वे अपने भक्तों का सदा हित करते हैं । जो भक्तों के हित में होता है वही प्रभु करते हैं । कभी-कभी हम कुछ और चाहते हैं पर प्रभु कुछ और करते हैं पर यह निश्चित मानिए कि प्रभु वही करते हैं जिसमें उनके प्रिय भक्तों का हित होता है । हम अपने वर्तमान को देखकर भविष्य मांगते हैं पर प्रभु हमारे भविष्य को जानते हुए हमें वर्तमान देते हैं । श्री रामचरितमानसजी में देवर्षि प्रभु श्री नारदजी का एक प्रसंग आता है । प्रभु की माया से वे एक बार मोहित हुए और प्रभु की माया ने उन्हें मायानगरी , राजा , सुंदर राजकुमारी दिखलाई । सुंदर राजकुमारी से विवाह करने का मोह उनमें जगा और वे प्रभु के पास प्रभु जैसा रूप मांगने गए जिससे राजकुमारी मोहित होकर स्वयंवर में वरमाला उनके गले में डाल दे । एक पते की बात देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने प्रभु से की कि जिसमें उनका हित हो प्रभु वैसा करें । यह बात सुनकर प्रभु अति प्रसन्न हुए क्योंकि यह प्रभु के मन की बात थी । प्रभु ने उन्हें वानर रूप दे दिया जिसका देवर्षि प्रभु श्री नारदजी को पता नहीं चला । स्वयंवर हुआ और राजकुमारी ने उनकी तरफ देखा तक नहीं और वरमाला प्रभु क...