हम जैसा चिंतन करते हैं हमारा मन भी वैसा ही बनता जाता है और हमें फल भी उसी अनुरूप मिलता है । इसलिए चिंतन सदैव भगवत् विषय का और अच्छाइयों का ही होना चाहिए तभी हमारा कल्याण और मंगल होगा । सतयुग की कथा है । एक गांव के बाहर एक साधु झोपड़ी में रहता था और एक नृत्यांगना अपने घर में रहती थी । साधु भजन और पूजन तो करता था पर नृत्यांगना के भोग-विलास, सुख-संपत्ति का चिंतन करता रहता था । साधु के मन में कई बार पछतावा होता था कि उसने विरक्ति का मार्ग लेकर गलती की और उसे भी संसार का सुख लेना चाहिए था । दूसरी तरफ नृत्यांगना रोज सोचती थी कि लोगों को रिझाने और पैसा कमाने का धंधा छोड़कर साधु की तरह अपना जीवन भजन और पूजन में लगाना चाहिए था । दोनों का जब शरीर छूटा और दोनों का हिसाब विचित्र ढंग से हुआ । क्योंकि साधु ने शरीर से भजन और पूजन किया था इसलिए गांव वालों ने उनकी समाधि बनाई । नृत्यांगना ने शरीर से बुरा कृत्य किया था तो उसका अंतिम संस्कार किसी ने नहीं किया और गिद्ध और जानवर उसके शरीर को खा गए । पर चूंकि नृत्यांगना ने मन से भजन और पूजन का संकल्प किया था उसे मानव देह में एक भजनानंदी ब्राह्मण ...
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